हिंदी साहित्य और इतिहास-दर्शन

इतिहास और आलोचना

किसी का भी इतिहास बीते हुए कल की बातों के वर्णन करने का एक विषय क्षेत्र है। इतिहास किसी का भी हो सकता है। साहित्य का भी अपना एक इतिहास है और इन्हीं इतिहासों पर नज़र रखने वालों को इतिहासकार कहा जाता है। इसी प्रकार साहित्य के अतीत को व्याख्यायित करने वाले को साहित्यिक इतिहासकार कहा जाता है। यह इतिहासकार सिर्फ इतिवृत को सामने नहीं लाते बल्कि उस इतिवृत को अपने अनुसार व्याख्यियत भी करते हैं। व्याख्या करने की इस प्रक्रिया को कुछ एक आलोचना भी कहा जाता है। आलोचना गुण-दोष के विवेचन करने को कहते हैं जिसमें किसी रचना अथवा विषय में मौजूद साहित्यिकता की तलाश की जाती है। आलोचना न केवल रचनाकार और उसके रचना को व्याख्यायित करने की कोशिश है बल्कि उसके पाठक के लिए उस रचना की समझ भी विकसित करती है। हिंदी साहित्य के इतिहास लिखने वालों को इसलिए आलोचक भी कहा जाता है क्योंकि वह इतिहास में हुए साहित्य अथवा रचनाओं की आलोचना करते हैं।

हिंदी साहित्य के एक हज़ार वर्ष समय में लिखी गई रचनाओं को परखने वाले सिर्फ उस समय की रचनाओं को एकीकृत नहीं करते बल्कि उस एकीकरण की व्याख्या भी करते हैं। वास्तव में, व्याख्या करने के लिए दृष्टि की जरुरत होती है क्योंकि बिना दृष्टि के किसी विषय को समझना मुश्किल है। दृष्टि अथवा चक्षु वस्तु के अस्तित्व का बोध कराती है और साहित्य में वस्तु कि जगह चित्तवृत्तियाँ मौजूद रहती है जो शब्दों का जामा लिए हुए होती है। इन्हीं शब्दों के इतिहास में अर्थों की खोज साहित्य इतिहास कहलाता है जो दृष्टि द्वारा संयोजित होती है। साहित्य का अध्ययन विभिन्न समय में विभिन्न साहित्येतिहासकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से किया और अपनी आलोचना-दृष्टि के अनुसार उसको व्याख्यायित करने का प्रयास किया। इसी को साहित्य इतिहास दृष्टि कहा जाता है जो आलोचना करने की व्यक्तिगत प्रक्रिया से प्रभावित रहती है।

हिंदी साहित्य को भी कई इतिहासकारों ने अपने-अपने समय में अपनी-अपनी आलोचना-दृष्टि से इसको प्रभावित किया है। इतिहास का वर्णन करने की उनकी यही दृष्टि साहित्य के इतिहास की समझ बनाती है और साहित्य को निश्चित मानदंड के अनुसार ढाल कर व्याख्यायित करने का प्रयास करती है। हिंदी साहित्य का इतिहास भी अनेक दृष्टियों से संयोजित होता रहा है और इतिहास-बोध नए प्राणों से सिंचित होता रहा है।


इतिहास और आलोचना आपस में घनिष्ठ तो हैं परन्तु उनकी इस घनिष्ठता के साथ में एक हाशिया भी मौजूद है जो दोनों के बीच में अंतर भी रखता है। इतिहास बीते हुए की बात बताता है और वह बात बताने के लिए अथवा उसका वर्णन करने के लिए जिन वैचारिक भूमि की आवश्यकता पड़ती है वह आलोचना भूमि है। जैसे आलोचना एक पद्धति मूलक प्रक्रिया है जो जीवन की व्याख्या(साहित्य) की व्याख्या करता है। आलोचना कर्म के द्वारा ही हम बीती बातों को एक सार्थक आकर देते हैं। आलोचना करके ऐतिहासिक साहित्य के तत्त्वों की व्याख्या की जाती है। वास्तव में, इतिहास और आलोचना एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करती है। इतिहास लिखने के लिए एक लोचन अथवा दृष्टि चाहिए और आलोचना करने के लिए इतिहास-बोध चाहिए। इस तरह से, हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए आलोचना-दृष्टि की जरुरत होती है जो उसकी सूक्ष्म व्याख्या भी कर सके और उसके स्थूल रूप को निर्मित करके चीजों को आसान बना सके।

इतिहास और अनुसन्धान

इतिहास जैसे इतिवृत्तों का व्याख्यात्मक रूप है उसी तरह अनुसन्धान उन व्याख्यात्मक तथ्यों को तलाशने अथवा परखने की एक विधि है। साहित्य का जब इतिहास लेखन किया जाता है तो अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ती है। अनुसन्धान ऐतिहासिक तथ्यों का संधान करता है, उनका शोधन करता है। अनुसन्धान को शोध, गवेषणा, खोज आदि भी कहा जा सकता है। यह एक नियोजित तार्किक और वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। जो ज्ञान में वृद्धि करती है और उसे मांजने का काम करती है।

आलोचना भी तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से अलग नहीं है। आलोचना और अनुसन्धान को समझने का प्रयास करें तो अनुसन्धान नवीन तथ्यों की खोज करने की प्रक्रिया है जबकि आलोचना प्रदत्त साहित्य को किन्ही साहित्यिक कसौटियों पर कसने का काम करता है और इसके लिए साहित्य-बोध की जरुरत पड़ती है। अनुसन्धान और आलोचना दोनों की प्रक्रिया में दृष्टि की आवश्यकता होती है। पर दोनों के लक्ष्य भिन्न होते हैं। अनुसन्धान विषय की जाँच करने के बाद उसकी समस्यायों या कमियों को उजागर करता है और निवारण करने का प्रयास करता है। यह किसी साहित्यकार की रचनाओं में मौजूद तथ्यों के विश्लेषण की कमियों को आलोकित करके उसमें शोधन करता है। आलोचना शोधन करने का काम नहीं करता बल्कि वह तो बस विश्लेषण करके तथ्यों को सामने ले आता है।


साहित्य इतिहास लेखन में अनुसन्धान की बहुत आवश्यकता होती है। कोई भी इतिहास लेखन तभी संभव है जब उसके लिए प्रदत्त अथवा इतिवृत की उपलब्धता होगी। उन उपलबध सामग्री का गहनता से विश्लेषण भी करना जरुरी होता है। विश्लेषण के पश्चात् ही हम साहित्य इतिहास के प्रति एक दृष्टिकोण का निर्माण कर पाते हैं। इन्हीं दृष्टिकोण का वस्तुपरक रूप अस्तित्व में आता है जिसमें इतिहासकार का आत्मपरक भी कुछ एक रूप में विद्यमान रहता है जिसे इतिहास-दर्शन कह सकते हैं। यही साहित्य का इतिहास रूप होता है जिसमें अनुसन्धान की एक बहुत बड़ी भूमिका रहती है।

हिंदी में साहित्येतिहास-दर्शन के रूप

साहित्य का जो इतिहास होता है वह सिर्फ अतीत में लिखे गए साहित्य या साहित्यकारों का ब्यौरा नहीं होता बल्कि उस अतीत से सम्बंधित सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक वातावरण का भी उसमें स्वरुप रहता है। साहित्य का स्वरुप परिवर्तनशील होता है जिसको समझने के लिए उससे संबंधित जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक स्थितियों और परिस्थितियों को समझना आवश्यक है क्योंकि साहित्य जिससे मूल रूप से जुड़ा है वह भी परिवर्तनशील है। साहित्य का सम्बन्ध मनुष्यों से है और मनुष्य के विचार व भावनाएं अपने समय और परिवेश से जुड़े होते हैं। इन्हीं समय और परिवेश का साहित्य से सम्बंधित अध्ययन उसके साहित्य के अतीत की सही व्याख्या होती है। यह युग यथार्थ और प्रदत्त साहित्य के मूल को उजागर करने वाला होता है। ताकि किसी रचना या प्रवृति के कारणों का भी यथावत ज्ञान प्राप्त हो सके। इन साहित्यिक चीजों पर नजर रखने के लिए इतिहासकार को एक मानदंड अथवा दृष्टि की जरुरत होती है ताकि इतिहास का एक स्वरुप निर्माण किया जा सके।


हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के इतिहास पर दृष्टि डालने पर हमें मिलता है कि साहित्य इतिहास लिखने के लिए इतिहासकार जिन दृष्टिकोणों का प्रयोग करते थे वह अपने प्रारंभिक रूप में इतिवृत्तात्मक था तथा ब्यौरा मात्र होने कि वजह से साहित्य का इतिहास-बोध अव्यवस्थित था। वह कवियों के जीवन-वृत्त और कृतित्व का वर्णन मात्रा था जिसको समझना कठिन था। साहित्य अपने-आप में एक वैचारिक पद्धति है और उसी के इतिहास में वैचारिकता का यह अभाव उचित नहीं जान पड़ता। इसीलिए बाद के इतिहासकारों ने इस कमी को समझा और उसको दूर करते हुए उसकी व्यावहारिक व्याख्या करने पर जोर दिया।

प्रारंभिक हिंदी साहित्येतिहास ग्रन्थ जो इतिवृत-प्रधान रहे –

  • चौरासी वैष्णवन की वार्ता (गोकुलनाथ)
  • दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (गोकुलनाथ)
  • भक्त नामावली (ध्रुवदास)
  • भक्तमाल (नाभादास)
  • कालिदास हजारा (कालिदास त्रिवेदी)

विकसित हिंदी साहित्य इतिहास की सूचि –

  • हिंदी साहित्य का इतिहास,1929 (आचार्य रामचंद्र शुक्ल)
  • हिंदी साहित्य की भूमिका,1940, हिंदी साहित्य का आदिकाल,1952 (आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी)
  • हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास,1965 (डॉ गणपतिचंद्र गुप्त)
  • हिंदी साहित्य और संवेदना का इतिहास,1986 (डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी)
  • हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास,2013 (नीरजा माधव)

ऐसे ही अनेकों ग्रंथों की रचना हुई है।

इतिहास-दृष्टि में सौष्ठववादी दृष्टि ने प्रदत्त साहित्य में शब्द और अर्थ के सौन्दर्यों को तलाशने का काम किया और सौंदर्यात्मक रचना को उत्कृट मानते हुए उस इतिहास का निरूपण किया। वैज्ञानिक दृष्टि ने इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से; निरपेक्षता को महत्व प्रदान किया। फिर विधेयवादी दृष्टि ने साहित्य और समाज के सम्बन्ध को मानकर परिवेशगत और परिस्थितिपरक व्याख्या का दर्शन सुलभ किया। समाजशास्त्रीय दृष्टि ने प्रदत्त साहित्य इतिहास में निहित समाजहित और लोककल्याण को अपना मूल्याङ्कन बनाया। मार्क्सवादी दृष्टि ने द्वंद्वात्मक समाज की संरचना के आधार पर वर्ग-संघर्ष को महत्वपूर्ण माना। नारीवादी दृष्टिकोण नारियों की अस्मिता की तलाश करने लगी और इसी तरह अस्मितामूलक इतिहास-दृष्टि का भी आगमन हुआ। साहित्य का यह दार्शनिक रूप जितना भी बदला लेकिन मूल में वह वस्तुपरक और आत्मपरक कारक से प्रभावित हुआ। ऐतिहासिक स्वरुप को एक रूप में ढाल कर इतिहास-दर्शन ने इतिहास-बोध का निर्माण किया।

इस तरह हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक दृश्य इतिहासकारों ने अपने-अपने आलोचनात्मक-दृष्टि से उजागर करने का प्रयास किया है।

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